शुक्रवार, 30 मार्च 2012

प्रेम पगी कविता

दिन में बन
सूर्यमुखी निकली,
कभी रात में रात की रानी हुई|

पल में तितली,
पल में बिजली,
पल में कोई गूढ़ कहानी हुई|

तेरे गीत नए,
तेरी प्रीत नई,
जग की हर रीत पुरानी हुई|

तेरी बानी के
पानी का सानी नहीं,
ये जवानी बड़ी अभिमानी हुई|

तुम गंध बनी,
मकरंद बनी,
तुम चंदन वृक्ष की दाल बनी|

अलि की मधु-गुंजन
भाव भरे,
मन की मनभावन चाल बानी|

कभी मुक्ति के
पावन गीत बनी,
कभी सृष्टि का सुंदर जाल बनी|

तुम राग बनी,
अनुराग बनी,
तुम छंद की मोहक ताल बनी|

अपने इस मादक
यौवन की,
गति से तिहुँ-लोक हिला सकती|

तुम पत्थर को
पिघला सकती,
तुम बिंदु में सिंधु मिला सकती|

हँसते हँसते
पतझर की धार में,
फूल ही फूल खिला सकती|

निज मोहिनी मूरत से
तुम काम की -
रानी को पानी पिला सकती|

अँखियाँ मधुमास
लिए उर में,
अलकों में भरी बरखा कह दूँ|

छवि है जिसपे
रति मुग्ध हुई,
गति है कि कोई नदिया कह दूँ|

उपमाऐं सभी
पर तुच्छ लगे,
इस अद्भुत रूप को क्या कह दूँ|

बलखाती हुई
उतरी मन में,
बस प्रेम पगी कविता कह दूँ|


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