सूर्यमुखी निकली,
कभी रात में रात की रानी हुई|
पल में तितली,
पल में बिजली,
पल में कोई गूढ़ कहानी हुई|
तेरे गीत नए,
तेरी प्रीत नई,
जग की हर रीत पुरानी हुई|
तेरी बानी के
पानी का सानी नहीं,
ये जवानी बड़ी अभिमानी हुई|
तुम गंध बनी,
मकरंद बनी,
तुम चंदन वृक्ष की दाल बनी|
अलि की मधु-गुंजन
भाव भरे,
मन की मनभावन चाल बानी|
कभी मुक्ति के
पावन गीत बनी,
कभी सृष्टि का सुंदर जाल बनी|
तुम राग बनी,
अनुराग बनी,
तुम छंद की मोहक ताल बनी|
अपने इस मादक
यौवन की,
गति से तिहुँ-लोक हिला सकती|
तुम पत्थर को
पिघला सकती,
तुम बिंदु में सिंधु मिला सकती|
हँसते हँसते
पतझर की धार में,
फूल ही फूल खिला सकती|
निज मोहिनी मूरत से
तुम काम की -
रानी को पानी पिला सकती|
अँखियाँ मधुमास
लिए उर में,
अलकों में भरी बरखा कह दूँ|
छवि है जिसपे
रति मुग्ध हुई,
गति है कि कोई नदिया कह दूँ|
उपमाऐं सभी
पर तुच्छ लगे,
इस अद्भुत रूप को क्या कह दूँ|
बलखाती हुई
उतरी मन में,
बस प्रेम पगी कविता कह दूँ|
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